वर्णीजी
प्रस्रवन्नवभिर्द्वारै: पूतिगन्धान्निरन्तरम् ।
क्षणक्षयं पराधीनं शश्वन्नरकलेवरम् ॥3॥
अन्वयार्थ :
यह मनुष्य का शरीर नव द्वारों से निरन्तर दुर्गन्धरूप पदार्थों से झरता रहता है तथा क्षणध्वंसी पराधीन है और नित्य अन्न पानी की सहायता चाहता है ॥३॥
वर्णीजी