यद्यद्वस्तु शरीरेऽत्र साधुबुद्ध्या विचार्यते ।
तत्तत्सर्वं घृणां दत्ते दुर्गन्धामेध्यमंदिरे ॥5॥
अन्वयार्थ : इस शरीर में जो-जो पदार्थ हैं, सुबुद्धि से विचार करने पर वे सब घृणा के स्थान तथा दुर्गन्धमय विष्टा के घर ही प्रतीत होते हैं । इस शरीर में कोई भी पदार्थ पवित्र नहीं है ॥५॥

  वर्णीजी