कलेवरमिदं न स्याद्यदि चर्मावगुण्ठितम् ।
मक्षिकाकृमिकाकेभ्य: स्यात्त्रातुं कस्तदा प्रभु: ॥7॥
अन्वयार्थ : यदि यह शरीर बाहर के चमड़े से ढंका हुआ नहीं होता तो मक्खी, कृमि तथा कौओं से इसकी रक्षा करने में कोई भी समर्थ नहीं होता। ऐसे घृणास्पद शरीर को देखकर सत्पुरुष जब दूर से छोड़ देते हैं, तब इसकी रक्षा कौन करे ? ॥७॥

  वर्णीजी