
अजिनपटलगूढं पञ्जरं कीकसानां
कुथितकुणपगन्धै: पूरितं मूढ गाढम् ।
यमवदननिषण्णं रोगभोगीन्द्रगेहं
कथमिह मनुजानां प्रीयते स्याच्छरीरम् ॥13॥
अन्वयार्थ : हे मूढ़ प्राणी! इस संसार में मनुष्यों का यह शरीर चर्म के पटलों से ढका हुआ हाड़ों का पिंजरा है तथा बिगड़ी हुई राध की दुर्गन्ध से परिपूर्ण है एवं काल के मुख में बैठे हुए रोगरूपी सर्पों का घर है। ऐसा शरीर प्रीति करने के योग्य कैसे हो सकता है ? यह बड़ा ही आश्चर्य है ॥१३॥
निर्मल अपनी आतमा, देह अपावन गेह ।
जानि भव्य निजभाव को, यासों तजो सनेह ॥६॥
वर्णीजी