वार्द्धेरन्त: समादत्ते यानपात्रं यथा जलम् ।
छिद्रैर्जीवस्तथा कर्म योगरन्ध्रै: शुभाशुभै: ॥2॥
अन्वयार्थ : जैसे समुद्र में प्राप्त हुआ जहाज छिद्रों से जल को ग्रहण करता है, उस ही प्रकार जीव शुभाशुभ योगरूप छिद्रों से (मन-वचन-काय से) शुभाशुभ कर्मों को ग्रहण करता है ॥२॥

  वर्णीजी