वर्णीजी
सुगुप्तेन सुकायेन कायोत्सर्गेण वाऽनिशम् ।
सञ्चिनोति शुभं कर्मं काययोगेन संयमी ॥7॥
अन्वयार्थ :
भले प्रकार गुप्त रूप किये हुए अर्थात् अपने वशीभूत किये हुए काय से तथा निरन्तर कायोत्सर्ग से संयमी मुनि शुभ कर्म को संचय
(आस्रवरूप)
करते हैं ॥७॥
वर्णीजी