वर्णीजी
सततारम्भयोगैश्च व्यापारैर्जन्तुघातवै: ।
शरीरं पापकर्माणि संयोजयति देहिनाम् ॥8॥
अन्वयार्थ :
निरन्तर आरम्भ करने वाले और जीव घात के कार्यों से तथा व्यापारों से जीवों का शरीर
(काययोग)
पापकर्मों को संग्रह करता है अर्थात् काययोग से अशुभास्रव करता है ॥८॥
वर्णीजी