
कषाया: क्रोधाद्या: स्मरसहचरा: पञ्चविषया:
प्रमादा मिथ्यात्वं वचनमनसी काय इति च ।
दुरन्ते दुर्ध्याने विरतिविरहश्चेति नियतं
स्रवन्त्येते पुंसां दुरितपटलं जन्मभयदम् ॥9॥
अन्वयार्थ : प्रथम तो मिथ्यात्वरूप परिणाम, दूसरे क्रोधादि कषाय, तीसरे काम के सहचारी पंचेन्द्रियों के विषय, चौथे प्रमाद विकथा, पाँचवें मन-वचन-काय के योग, छठे व्रतरहित अविरतिरूप परिणाम और सातवें आत्र्त-रौद्र दोनों अशुभ ध्यान ये सब परिणाम नियम से पापरूप आस्रवों को करते हैं ।
आतम केवलज्ञानमय, निश्चयदृष्टि निहार ।
सब विभाव परिणाममय, आस्रवभाव विडार ॥७॥
वर्णीजी