वर्णीजी
य: कर्मपुद्गलादानविच्छेद: स्यात्तपस्विन: ।
स द्रव्यसंवर: प्रोक्तो ध्याननिर्धूतकल्मषै: ॥2॥
अन्वयार्थ :
ध्यान से पापों को उड़ाने वाले ऋषियों ने कहा है कि जो तपस्वी मुनियों के कर्मरूप पुद्गलों के ग्रहण करने का विच्छेद
(निरोध)
हो, वह द्रव्यसंवर है ॥२॥
वर्णीजी