असंयममयैर्बाणै: संवृतात्मा न भिद्यते ।
यमी यथा सुसन्नद्धो वीर: समरसंकटे ॥4॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार युद्ध के संकट में भले प्रकार से सजा हुआ वीर पुरुष बाणों से नहीं भिदता है, उसी प्रकार संसार की कारणरूप क्रियाओं से विरतिरूप संवर वाला संयमी मुनि भी असंयमरूप बाणों से नहीं भिदता है ॥४॥

  वर्णीजी