वर्णीजी
जायते यस्य य: साध्य: स तेनैव निरुध्यते ।
अप्रमत्तै: समुद्युत्तै: संवरार्थं महर्षिभि: ॥5॥
अन्वयार्थ :
प्रमादरहित संवर के लिए उद्यमी मर्हिषयों द्वारा जो जिसको साध्य हो, वह उसी से रोकना चाहिये ॥५॥
वर्णीजी