
क्षमा क्रोधस्य मानस्य मार्दवं त्वार्जवं पुन: ।
मायाया: सङ्गसंन्यासो लोभस्यैते द्विष: क्रमात् ॥6॥
अन्वयार्थ : क्रोधकषाय का तो क्षमा शत्रु है तथा मान कषाय का मृदुभाव , मायाकषाय का ऋजुभाव और लोभकषाय का परिग्रहत्याग भाव; इस प्रकार अनुक्रम से शत्रु जानने चाहिये ॥६॥
वर्णीजी