
द्वारपालीव यस्योच्चैर्विचारचतुरा मति: ।
हृदि स्फुरति तस्याघसूति: स्वप्नेऽपि दुर्घटा ॥10॥
अन्वयार्थ : जिस पुरुष के हृदय में द्वारपाल के समान अतिशय विचार करने वाली चतुर मति कलोलें करती हैं उसके हृदय में स्वप्न में भी पाप की उत्पत्ति होनी कठिन है।
वर्णीजी