वर्णीजी
विहाय कल्पनाजालं स्वरूपे निश्चलं मन: ।
यदाधत्ते तदैव स्यान्मुने: परमसंवर: ॥11॥
अन्वयार्थ :
जिस समय समस्त कल्पनाओं के जाल को छोड़कर अपने स्वरूप में मन को निश्चलता से थामते हैं, उस ही काल मुनि को परमसंवर होता है ॥११॥
वर्णीजी