पाक: स्वयमुपायाच्च स्यात्फलानां तरोर्यथा ।
तथात्र कर्मणां ज्ञेय: स्वयं सोपायलक्षण: ॥3॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार वृक्षों के फलों का पकना एक तो स्वयं ही होता है, दूसरे पाल देने से भी होता है इसी प्रकार कर्मों का पकना भी है अर्थात् एक तो कर्मों की स्थिति पूरी होने पर फल देकर क्षर जाती है दूसरे सम्यग्दर्शनादि सहित तपश्चरण करने से कर्म नष्ट हो जाते हैं अर्थात् क्षर जाते हैं ॥३॥

  वर्णीजी