विशुद्ध्यति हुताशेन सदोषमपि काञ्चनम् ।
यद्वत्तथैव जीवोऽयं तप्यमानस्तपोऽग्निना ॥4॥
अन्वयार्थ : जैसे सदोष भी सुवर्ण (सोना) अग्नि में तपाने से विशुद्ध हो जाता है उसी प्रकार यह कर्मरूपी दोषों सहित जीव तपरूपी अग्नि में तपने से विशुद्ध और निर्दोष (कर्म रहित) हो जाता है ॥४॥

  वर्णीजी