निर्वेदपदवीं प्राप्य तपस्यति यथा यथा ।
यमी क्षपति कर्माणि दुर्जयानि तथा तथा ॥7॥
अन्वयार्थ : संयमी मुनि वैराग्य पदवी को प्राप्त होकर जैसे जैसे (ज्यों-ज्यों) तप करते हैं तैसे-तैसे (त्यों-त्यों) दुर्जय कर्मों को क्षय करते हैं ॥७॥

  वर्णीजी