ध्यानानलसमालीढमप्यनादिसमुद्भवम् ।
सद्य: प्रक्षीयते कर्म शुद्ध्यत्यङ्गी सुवर्णवत् ॥8॥
अन्वयार्थ : यद्यपि कर्म अनादिकाल से जीव के साथ लगे हुए हैं तथापि वे ध्यानरूपी अग्नि से स्पर्श होने पर तत्काल ही क्षय हो जाते हैं । उनके क्षय हो जाने से जैसे अग्नि के ताप से सुवर्ण शुद्ध होता है उसी प्रकार यह प्राणी भी तप से कर्म नष्ट होकर शुद्ध (मुक्त) हो जाता है ॥८॥

  वर्णीजी