(शिखरिणी)
तपस्तावद्बाह्यं चरति सुकृती पुण्यचरित-
स्ततश्चात्माधीनं नियतविषयं ध्यानपरमम् ।
क्षपत्यन्तर्लीनं चिरतरचितं कर्मपटलं
ततो ज्ञानाम्भोधिं विशति परमानन्दनिलयम् ॥12॥
अन्वयार्थ : पवित्र आचरण वाला सुकृती पुरुष प्रथम अनशनादि बाह्य तपों का आचरण करता है तत्पश्चात् आत्माधीन अभ्यन्तर तपों को आचरता है और उनमें नियत विषय वाले ध्यान नामक उत्कृष्ट तप को आचरता है। इस तप से चिरकाल से संचित किये हुए कर्मरूपी पटल को (घातिया कर्मों को) क्षय करता है और पश्चात् परमानन्द के (अतीन्द्रिय सुख के) घर ज्ञानरूपी समुद्र में प्रवेश करता है।
(दोहा)
संवरमय है आतमा, पूर्व कर्म झड़ जाय ।
निजस्वरूप को पाय कर, लोकशिखर जब थाय ॥९॥

  वर्णीजी