
न सम्यग्गदितुं शक्यं यत्स्वरूपं कुदृष्टिभि: ।
हिंसाक्षपोषकै: शास्त्रैरतस्तैस्तन्निगद्यते ॥3॥
अन्वयार्थ : धर्म का स्वरूप मिथ्यादृष्टियों तथा हिंसा और इन्द्रिय विषय पोषण करने वाले शास्त्रों के द्वारा भले प्रकार नहीं कहा जा सकता है। इस कारण इस धर्म का वास्तविक स्वरूप हम कहते हैं ॥३॥
वर्णीजी