धर्मो व्यसनसंपाते पाति विश्वं चराचरम् ।
सुखामृतपय: पूरै: प्रीणयत्यखिलं जगत् ॥6॥
अन्वयार्थ : धर्म कष्ट के आने पर समस्त जगत के त्रस, स्थावर जीवों की रक्षा करता है और सुखरूपी अमृत के प्रवाहों से समस्त जगत को तृप्त करता है ॥६॥

  वर्णीजी