वर्णीजी
मन्येऽसौ लोकपालानां व्याजेनाव्याहतक्रम: ।
जीवलोकोपकारार्थं धर्म एव विजृम्भित: ॥8॥
अन्वयार्थ :
मैं मानता हूँ कि इन्द्रादिक, लोकपाल अथवा राजादिकों के बहाने से लोकों के उपकारार्थ यह धर्म ही अव्याहत
(अबाधित)
फैल रहा है ॥८॥
वर्णीजी