धर्मो गुरुश्च मित्रं च धर्म: स्वामी च बान्धव: ।
अनाथवत्सल: सोऽयं संत्राता कारणं विना ॥11॥
अन्वयार्थ : धर्म गुरु है, मित्र है, स्वामी है, बांधव है, हितू है और धर्म ही बिना कारण अनाथों की प्रीतिपूर्वक रक्षा करने वाला है। इस प्राणी को धर्म के अतिरिक्त और कोई भी शरण देने वाला न हीं है ॥११॥

  वर्णीजी