व्यालानलोरगव्याघ्रद्विपशार्दूलराक्षसा: ।
नृपादयोऽपि द्रुह्यन्ति न धर्माधिष्ठितात्मने ॥17॥
अन्वयार्थ : जो धर्म से अधिष्ठित (सहित) आत्मा है, उसके साथ सर्प, अग्नि, विष, व्याघ्र, हस्ती, सिंह, राक्षस तथा राजादिक भी द्रोह नहीं करते हैं अर्थात् यह धर्म इन सबसे रक्षा करता है अथवा धर्मात्माओं के ये सब रक्षक होते हैं ॥१७॥

  वर्णीजी