
नि:शेषं धर्मसामर्थ्यं न सम्यग्वक्तुमीश्वर: ।
स्फुरद्वक्त्रसहस्त्रेण भुजङ्गेशोऽपि भूतले ॥18॥
अन्वयार्थ : धर्म का समस्त सामर्थ्य भले प्रकार कहने को स्फुरायमान सहस्र मुख वाला नागेन्द्र भी इस भूतल में समर्थ नहीं है। फिर हम कैसे समर्थ हो सकते हैं ? ॥१८॥
वर्णीजी