
धर्मधर्मेति जल्पन्ति तत्त्वशून्या: कुदृष्टय: ।
वस्तुतत्त्वं न बुध्यन्ते तत्परीक्षाऽक्षमा यत: ॥19॥
अन्वयार्थ : तत्त्व के यथार्थ ज्ञान से शून्य मिथ्यादृष्टि 'धर्म-धर्म' ऐसा तो कहते हैं परन्तु वस्तु के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानते क्योंकि वे उसकी परीक्षा करने में असमर्थ हैं ॥१९॥
वर्णीजी