
यद्यत्स्वस्यानिष्टं तत्तद्वाक्चित्तकम्-र्मभि: कार्यम् ।
स्वप्नेऽपि नो परेषामिति धर्मस्याग्रिमं लिङ्गम् ॥21॥
अन्वयार्थ : धर्म का मुख्य चिह्न यह है कि जो-जो क्रियायें अपने को अनिष्ट लगती हों, सो-सो अन्य के लिये मन-वचन-काय से स्वप्न में भी नहीं करनी चाहिये ॥२१॥
वर्णीजी