
धर्म: शर्म: भुजङ्गपुङ्गवपुरीसारं विधातुं क्षमो
धर्म: प्रापितमर्त्यलोकविपुलप्रीतिस्तदाशंसिनां ।
धर्म: स्वर्नगरीनिरन्तरसुखास्वादोदयस्यास्पदम्
धर्म: किं न करोति मुक्तिललनासंभोगयोग्यं जनम् ॥22॥
अन्वयार्थ : यह धर्म धर्मात्मा पुरुषों को धरणीन्द्र की पुरी के सारसुख को करने में समर्थ है तथा यह धर्म उस धर्म के वांछक और उसके पालने वाले पुरुषों को मनुष्यलोक में विपुल प्रीति प्राप्त कराता है और यह धर्म स्वर्गपुरी के निरन्तर सुखास्वाद के उदय का स्थान है तथा यह धर्म ही मनुष्य को मुक्तिस्त्री से संभोग करने के योग्य कराता है। धर्म और क्या-क्या नहीं कर सकता ? ॥२२॥
वर्णीजी