(मालिनी)
यदि नरकनिपातस्त्यत्तुमत्यन्तमिष्ट-
स्त्रिदशपतिमहर्द्धिं प्राप्तुमेकान्ततो वा ।
यदि चरमपुमर्थ: प्रार्थनीयस्तदानीं
किमपरमभिधेयं नाम धर्मं विधत्त ॥23॥
अन्वयार्थ : हे आत्मन्! यदि तुझे नरक निपात का छोड़ना परम इष्ट है अथवा इन्द्र का महान विभव पाना एकान्त ही इष्ट है, यदि चारों पुरुषार्थों में से अन्त का पुरुषार्थ (मोक्ष) प्रार्थनीय ही है, तो और विशेष क्या कहा जाए, तू एकमात्र धर्म का सेवन कर क्योंकि धर्म से ही समस्त प्रकार के अनिष्ट नष्ट होकर समस्त प्रकार के इष्ट की प्राप्ति होती है ॥२३॥
(दोहा)
दर्श ज्ञानमय चेतना, आतमधर्म बखानि ।
दया-क्षमादिक रतनत्रय, यामें र्गिभत जानि ॥१०॥

  वर्णीजी