
अनादिनिधन: सोऽयं स्वयं सिद्धोऽप्यनश्वर: ।
अनीश्वरोऽपि जीवादिपदार्थै: संभृतो भृशम् ॥4॥
अन्वयार्थ : यद्यपि यह लोक अनादिनिधन है, स्वयंसिद्ध है, अविनाशी है और इसका कोई ईश्वर, स्वामी व कर्त्ता नहीं है; तथापि जीवादिक पदार्थों से भरा हुआ है। अन्यमती लोक-रचना की अनेक प्रकार की कल्पनायें करते हैं, वे सब ही सर्वथा मिथ्या हैं ॥४॥
वर्णीजी