यत्रैते जन्तव: सर्वे नानागतिषु संस्थिता: ।
उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते कर्मपाशवशंगता: ॥6॥
अन्वयार्थ : इस लोक में ये सब प्राणी नाना गतियों में संस्थित अपने-अपने कर्मरूप फाँसी के वशीभूत होकर मरते तथा उपजते रहते हैं ॥६॥

  वर्णीजी