दंसणमाराहंतेण णाणमारयहिदं हवे णियमा ।
णाणं आराहंतेण दंसणं होदि भयणिज्जं॥4॥
दर्शन-आराधक को नियमित होय ज्ञान का आराधन ।
पर, ज्ञानाराधक को हो या नहीं दर्श का आराधन॥4॥
अन्वयार्थ : दर्शन की आराधना करनेवाला पुरुष नियम से ज्ञान-आराधना को प्राप्त होता है; परन्तु ज्ञान-आराधना करनेवाले पुरुष को दर्शन-आराधना हो अथवा न भी हो ।
सदासुखदासजी