सम्मादिठ्ठिस्स वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदी ।
होदि हु हत्थिण्हाणं चंुदच्चुदकम्म तं तस्स॥7॥
अविरत सम्यग्दृष्टि का तप नहीं महा गुणकारी है ।
गज-स्नानवत् तथा मथानी की रस्सीवत् व्यर्थ ही है॥7॥
अन्वयार्थ : अविरत सम्यग्दृष्टि का तप भी हस्ती स्नानवत् जानना । जैसे - हाथी स्नान करके भी अपनी ही सूँड में धूल लेकर अपने ही शरीर पर डाल लेता है, वैसे ही अविरती एक दिन तो अनशनादिक तप करता है और दूसरे दिन असंयम रूप आरंभ, विषय, कषाय, कुशीलादि करके अपने को मलीन कर लेता है अथवा जैसे मथानी की रई की डोरी एक ओर से खुलती जाती है तथा दूसरी ओर से बँधती जाती है, उसीप्रकार जानना । इसलिए सम्यक्त्व और चारित्र दोनों के मिलने से ही कल्याण को प्राप्त करता है ।
सदासुखदासजी