+ चारित्र-आराधना, दर्शन-ज्ञान-आराधनापूर्वक होती है । यही बतलाते हैं - -
कादव्वमिणमकादव्वं इत्ति णादूण होदि परिहारो ।
तं चेव हवदि णाणं तं चेव य होदि सम्मत्तं॥9॥
करने योग्य तथा नहिं करने योग्य जानकर हो परित्याग ।
और इसी को ज्ञान कहे यह ही सम्यक्त्व कहें जिनराज॥9॥
अन्वयार्थ : यह करने योग्य है, यह नहीं करने योग्य है - ऐसा जानकर ही परिहार अर्थात् त्याग होता है, वही ज्ञान एवं सम्यक्त्व कहलाता है । भावार्थ - सम्यक् त्याग अर्थात् चारित्र, वह श्रद्धान-ज्ञान बिना नहीं होता, इसलिए श्रद्धान-ज्ञानपूर्वक ही चारित्र होता है - ऐसा जानना ।

  सदासुखदासजी