चक्खुस्स दंसणस्स य, सारो सप्पादिदोस-परिहरणं ।
चक्खू होदि णिरत्थं, दट्ठूण बिले पडंतस्स॥12॥
नेत्रों का है सार यही सर्पादिक दोषों से बचना ।
गड्ढे में गिरने वाले के नेत्र निरर्थक ही कहना॥12॥
अन्वयार्थ : प्रकीर्णक नामक अंगबाह्य द्रव्यश्रुत, वह चौदह प्रकार का है । सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, निषिद्धिका । 'सम' अर्थात् एकत्वपने से 'आय:' अर्थात् आगमन, परद्रव्यों से निवृत्ति हो, उपयोग की आत्मा में प्रवृत्ति - यह मैं ज्ञाता-दृष्टा हूँ - ऐसे आत्मा में उपयोग लगना, वह सामायिक कहलाती है । इससे एक ही आत्मा, वह जानने योग्य है, इसलिए ज्ञेय है और जाननहार है; अत: ज्ञायक है, इसलिए अपने को ज्ञाता-दृष्टा अनुभवता हैअथवा 'सम' अर्थात् राग-द्वेषरहित मध्यस्थ आत्मा, उसमें 'आय:' अर्थात् उपयोग की प्रवृत्ति उसे समाय कहते हैं । समाय है प्रयोजन जिसका, उसे सामायिक कहते हैं । नित्य-नैमित्तिकरूप क्रिया विशेष उस सामायिक का प्रतिपादक शास्त्र, उसे भी सामायिक कहते हैं । नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के भेद से सामायिक के छह प्रकार हैं ।
सदासुखदासजी