समिदीसु य गुत्तीसु य, दंसणणाणे य णिरदिचाराणं ।
आसादणबहुलाणं, उक्कस्सं अंतरं होदी॥16॥
दर्शन ज्ञान समिति गुप्ति के निरतिचार आराधक में ।
अरु अतिचार सहित वर्तक1 में जिन अन्तर उत्कृष्ट कहे॥16॥
अन्वयार्थ : समिति अर्थात् परमागम की आज्ञाप्रमाण प्रमादरहित यत्नाचार से गमन करना, हित- मित, नि:संदेह सूत्र की आज्ञाप्रमाण बोलना, दोषरहित आचारांग की आज्ञाप्रमाण भोजन करना, प्रमादरहित देख-शोधकर शरीर एवं उपकरणों को रखना-उठाना तथा निर्जन्तु भूमि में यत्नाचार पूर्वक मल, मूत्र, कफ, नासिका मल, नाखून, केशादि का क्षेपण करना - ये समितियाँ हैं तथा सर्व-सावद्ययोग पाप सहित मन-वचन-काय की प्रवृत्ति रोकना गुप्ति है ।
वस्तु का जैसा स्वरूप है, वैसा श्रद्धान करना वह दर्शन है । वस्तु के सत्यार्थ स्वरूप को संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय जो ज्ञान के दोष हैं, उनसे रहित यथार्थ जानना, वह ज्ञान है । इसलिए पंचसमितियों में, तीन गुप्तियों में, दर्शन में, ज्ञान में अतिचार रहित प्रवृत्ति करने वाले जीव में और आसादना की अधिकता अर्थात् विराधना एवं अतिचार सहित प्रवर्त्तन करनेवाले पुरुष/जीव में उत्कृष्ट/बडा भारी अन्तर है ।
सदासुखदासजी