दिट्ठा अणादिमिच्छादिट्ठी जम्हा खणेण सिद्धा य ।
आराहगा चरित्तस्स तेण आराहणा सारो॥17॥
जो अनादि मिथ्यादृष्टि भी अल्पकाल में सिद्ध हुए ।
रत्नत्रय आराधन करके अतः सार आराधन है॥17॥
अन्वयार्थ : अनादि मिथ्यादृष्टि जो भद्रणादि राजपुत्र, उनने उसी भव में त्रसपने को प्राप्त किया था और जिनेन्द्र देव के चरणकमलों के निकट धर्मश्रवण करके सम्यग्दर्शन और संयम को प्राप्त करके अति-अल्पकाल में रत्नत्रय की पूर्णता करके सिद्ध हो गये । इसलिए आराधना ही सार है । यहाँ गाथा में 'क्षण' शब्द आया है, उसका अर्थ अल्पकाल समझना ।
सदासुखदासजी