इय सामण्णंसाहूवि कुणदि णच्चमवि जोग्गपरियम्मं ।
तो जिदकरणो मरणे झाणसमत्थो भविस्संति॥21॥
इसी तरह सामान्य साधु भी नित्य योग्य परिकर्म1 कर ।
अन्त समय में इन्द्रिय जय कर, धर्मध्यान सामर्थ्य धरे॥21॥
अन्वयार्थ : उसी प्रकार जो साधु हैं, वे भी सामान्य से अपने रत्नत्रय की रक्षा के योग्य परिकर्म अर्थात् सामग्री को नित्य ही तैयार रखते हैं । वे जितेन्द्रिय होते हुए मरण के अवसर में धर्मध्य ानादि में समर्थ होते हैं ।
सदासुखदासजी