अविरदसम्मादिट्ठी मरंति बालमरणे चउत्थम्मि ।
मिच्छादिट्ठी य पुणो पंचमए बालबालम्मि॥30॥
अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे बाल-मरण का वरण करें ।
और पाँचवाँ बाल-बाल मिथ्यादृष्टि यह मरण करें॥30॥
अन्वयार्थ : क्षीण अर्थात् नाश हो गई है कषाय जिनकी - ऐसे केवली भगवान का निर्वाणगमन, वह पण्डित-पण्डित मरण है और विरताविरत/देशव्रत सहित श्रावक सूत्र की अपेक्षा तृतीय मरण बालपण्डित मरण सहित मरण करते हैं और आचारांग की आज्ञाप्रमाण यथोक्त चारित्र के धारक साधु मुनि उनका पण्डितमरण होता है । पण्डित मरण तीन प्रकार का है - एक भक्तप्रतिज्ञा, दूसरा इंगिनी, तीसरा प्रायोपगमन । इनमें से भक्तप्रतिज्ञा में साधु संघ से वैय्यावृत्य कराते हैं अथवा स्वयं भी स्वयं की वैय्यावृत्य करते हैं तथा अनुक्रम से आहार, कषाय, देह का त्याग करते हैं । इंगिनी मरण में परकृत वैय्यावृत्य एवं आहार-पान रहित एकाकी वन में देह का त्याग करते हैं । कदाचित् उठना, बैठना, चलना, पसारणा, सकेलना/संकुचित करना, सोना - इस तरह स्वयं अपनी टहल करते हैं, पर से टहल नहीं कराते; कदाचित् बिना कहे कोई करे तो स्वयं मौन रहते हैं । प्रायोपगमन में अपनी वैय्यावृत्य न तो स्वयं करते हैं और न ही पर से कराते हैं, सूखे काष्ठवत् या मृतक के समान काय-वचन की सर्व क्रिया
सदासुखदासजी