गिहिदत्थो संविग्गो अत्थुवदेसे ण संकणिज्जो हु ।
सो चेव मंदधम्मो अत्थुवदेसम्मि भयणिज्जो॥35॥
गृहीतार्थ संवेगी एवं पाप-भीरु के वचन प्रमाण ।
किन्तु मन्दधर्मी उपदेशक वचन प्रमाण तथा अप्रमाण॥35॥
अन्वयार्थ : जो गृहीतार्थ/आगम के अर्थ को प्रमाण-नय-निक्षेप के द्वारा, गुरु-परिपाटी से, शब्दब्रह्म के सेवन से तथा स्वानुभव प्रत्यक्ष द्वारा अच्छी तरह सत्यार्थ ग्रहण किया हो तथा संसार-देह-भोगों से विरक्त हो, पाप से भयभीत हो - ऐसे सम्यग्ज्ञानी और वीतरागी के शास्त्र व अर्थ के उपदेश में शंका करना योग्य नहीं है ।
सदासुखदासजी