आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य पुण्णपावं च ।
तह एव जिणाणाए सद्दहिदव्वा अपरिसेसा॥38॥
आस्रव, संवर और निर्जरा, बन्ध, मोक्ष एवं पुण्य-पाप ।
जिन-आज्ञा से श्रद्धा करने योग्य कहे हैं ये नवतत्त्व॥38॥
अन्वयार्थ : जिन भावों से कर्म का आना रुक जाये - ऐसी तीन गुप्ति, पंच समिति, दशलक्षण धर्म, बारह भावना, बाईस परीषह जीतना और पाँच प्रकार के चारित्र का पालना - ये संवर हैं । आत्मप्रदेशों पर कर्म प्रदेशों का परस्पर एकक्षेत्रावगाह रूप होना वह बन्ध है । आत्मप्रदेशों से एकदेश कर्म का नाश होना/झड जाना, वह निर्जरा है तथा आत्मा से सम्पूर्ण कर्म का छूट जाना/पृथक् हो जाना, वह मोक्ष है । वांछित सुखकारी वस्तु को प्राप्त करना पुण्य है, दुह्नखकारी संयोग मिलावे, वह पाप है । इन नव पदार्थ का जिनेन्द्र देव की आज्ञाप्रमाण श्रद्धान करने योग्य है ।
सदासुखदासजी