मिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदंसणो होदी ।
ण य धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जरिदो॥41॥
दर्शनमोह उदय का वेदक जीव करे श्रद्धा विपरीत ।
ज्वराक्रान्त को मधुर रुचे नहिं, वैसे नहीं धर्म से प्रीत॥41॥
अन्वयार्थ : मिथ्यात्व/दर्शनमोह के उदय का अनुभव करने वाला जीव विपरीत श्रद्धानी होता है । जैसे ज्वर के रोगी को मधुर मिष्ट रस भी नहीं रुचता, वैसे ही (इसे) धर्म नहीं रुचता है; धर्म की कथनी, धर्म का आचरण अच्छा नहीं लगता ।

  सदासुखदासजी