णिग्गंथं पव्वयणं इणमेव अणुत्तरं सुपरिसुद्धं ।
इणमेव मोक्खमग्गोत्ति भदी कायव्विया तम्हा॥43॥
यह निर्ग्रन्थ रत्नत्रय ही सर्वाेकृष्ट एवं परिशुद्ध ।
अतः मुुक्ति का मार्ग यही है करना एेसी मति सुविशुद्ध॥43॥
अन्वयार्थ : यहाँ प्रवचन शब्द के द्वारा निर्ग्रन्थ रत्नत्रय कहा गया है । यह ही अच्छी तरह शुद्ध रागादि रहित केवल आत्मा का स्वभाव है, यह रत्नत्रय ही निर्ग्रन्थ है । यहाँ निर्ग्रन्थ का क्या अर्थ? ग्रन्थि/संसार को रचता है, दीर्घ करता है । ग्रन्थ अर्थात् मिथ्यात्वादि, उनका अभाव, वह निर्ग्रन्थ है । यह रत्नत्रय ही अनुत्तर अर्थात् सर्वोत्कृष्ट है, यही मोक्ष का मार्ग है । इसप्रकार बुद्धि करने योग्य है ।
सदासुखदासजी