भत्ती पूया वण्णजणणं च णासणमवण्णवादस्स ।
आसादणपरिहारो दंसणविणओ समासेण॥47॥
इनकी भक्ति पूजा यश-वर्धन अपवाद करे सुविनाश ।
करे नहीं किंचित् विराधना दर्शन-विनय यही है सार॥47॥
अन्वयार्थ : अरहंत-सिद्ध और इनके चैत्य अर्थात् प्रतिबिम्ब, श्रुत जो शास्त्र, धर्म दशलक्षण भाव, साधु समूह जो रत्नत्रय के साधक; आचार्य, जो पंचाचार का स्वयं आचरण करते हैं और भव्यजीवों को कराते हैं; उपाध्याय जो श्रुत को पढते हैं और अन्य शिष्यों को पढाते हैं, प्रवचन अर्थात् जिनेन्द्र की वाणी और सम्यग्दर्शन - ये दस स्थान कहे । इनमें भक्ति/इनके गुणों में अनुराग-आनन्द, उपासना करना तथा पूजा करना । इसमें से पूजा दो प्रकार की है

  सदासुखदासजी