सद्दहया पत्तियया रोचय फासंतया पवयणस्स ।
सयलस्स जे णरा ते सम्मत्ताराहया होंति॥48॥
सद्दहया िेत्तयया राचिय फासंतया वियणस्स ।
सयलस्स जि णरा ति सम्मत्ताराहया होंेत॥48॥
अन्वयार्थ : जो पुरुष सम्पूर्ण प्रवचन का श्रद्धान करता है, प्रतीति करता है, रुचि करता है, स्पर्शन/अंगीकार करता है; वह सम्यक्त्व का आराधक होता है ।
सदासुखदासजी