लद्धूण य सम्मत्तं मुहुत्तकालमवि जे परिवडंति ।
तेसिमणंताणंता ण भवदि संसारवासद्धा॥56॥
जो अन्तर्मुहूर्त मात्र भी सम्यग्दर्शन प्राप्त करें ।
यदि च्युत हो समकित से तो भी नहिं अनन्त संसार भ्रमे॥56॥
अन्वयार्थ : जो जीव अन्तर्मुहूर्तकाल मात्र को भी सम्यक्त्व को प्राप्त होकर फिर सम्यक्त्व से गिर जाते हैं, उनको भी अनन्त संसार-भ्रमण का काल नहीं होता है ।

  सदासुखदासजी