जो पुण मिच्छादिट्ठी दढचरित्तो अदढचरित्तो वा ।
कालं करेज्ज ण हु सो कस्सा हु आराहगो होदि॥57॥
मिथ्यादृष्टि धारे दृढ़ चारित या चारित्र शिथिल धरें ।
मरण करे मिथ्यात्व सहित तो नहिं कोई आराधक है॥57॥
अन्वयार्थ : चारित्र में शिथिल हो, परन्तु मिथ्यादृष्टि मरण करता है तो वह कोई भी आराधना का आराधक नहीं है । भावार्थ - मिथ्यादृष्टि व्रत-त्याग सहित सावधानी पूर्वक मरण करे या व्रत-त्याग रहित मरण करे; परन्तु उसके एक भी आराधना नहीं है । मिथ्यादृष्टि का कुमरण ही जानना । आगे मिथ्यात्व के कितने प्रकार हैं, वही कहते हैं-
सदासुखदासजी