धणिदं पि संजमंतो मिच्छादिठ्ठी तहा ण पावेदि ।
इट्ठं णिव्वुदिमग्ग उग्गेण तवेण जुत्तो वि॥62॥
वैसे संयम धर कर भी मिथ्यादृष्टि नहिं प्राप्त करे ।
इष्ट मुक्ति का मार्ग कभी भी, भले उग्र तप को धारे॥62॥
अन्वयार्थ : जैसे कोई पुरुष एक दिन में सौ योजन गमन करता है, परन्तु उलटे मार्ग में चले तो अपने वांछित देश को प्राप्त नहीं कर पाता । वैसे ही मिथ्यादृष्टि अतिशय रूप से संयम में प्रवर्तता हुआ भी उग्र/उत्कृष्ट तप से संयुक्त होने पर भी अपना इष्ट - ऐसा निर्वाणमार्ग/ मोक्ष का उपाय, उसे प्राप्त नहीं होता है ।
सदासुखदासजी