जस्स वि अव्वभिचारी दोसो तिट्ठाणिगो विहारम्मि ।
सो वि हु संथारगदो गेण्हेज्जोस्सुग्गियं लिंगं॥80॥
जिसके नहिं होते विहार में त्रय स्थानिक दोष1 अहो ।
ग्रहण करे संन्यास वही सर्वाेत्तम लिंग-निर्ग्रन्थ गहे॥80॥
अन्वयार्थ : जिसके विहार में त्रिस्थानिक दोष नहीं व्यभिचरे/होते, वही संन्यास को प्राप्त हुआ सर्वोत्कृष्ट निर्ग्रन्थलिंग धारण करे ।
(यहाँ त्रिस्थानिक दोष का विशेष अर्थ हमारे जानने में नहीं आया, इसलिए विशेष नहीं लिखा है)

  सदासुखदासजी