आवसधे वा अप्पाउग्गे जो वा महड्ढिओ हिरिमं ।
मिच्छजणे सजणे वा तस्स होज्ज अववादियं लिंगं॥81॥
अव्रती या देशव्रती यदि उच्च पदस्थ या लज्जाशील ।
मिथ्यादृष्टि होय स्वजन तो हों अपवाद-लिंग धारी॥81॥
अन्वयार्थ : पूर्व में भक्तप्रत्याख्यान मरण करने वाले की योग्यता में संयमी तथा अव्रती असंयमी गृहस्थ का वर्णन किया है । उनमें जो अव्रती वा अणुव्रती गृहस्थ भक्तप्रत्याख्यान संन्यासमरण धारण करना चाहे और उनके संन्यास के स्थान - वसतिका न हो/अयोग्य हो अथवा गृहस्थ स्वयं महान ॠद्धिमान राजादि, मंत्री अथवा राजश्रेष्ठी हो अथवा संन्यास करने वाला गृहस्थ लज्जावान हो/लज्जा दूर करने में समर्थ न हो अथवा जिसके स्वजन स्त्री-पुत्रादि मिथ्यादृष्टि
सदासुखदासजी